शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

गिनती में मौत

इस वर्ष ( एक जनवरी से 23 अक्टूबर तक ) इंसेफेलाइटिस से बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में जेई/एईएस से 392 लोगों की मौत हो चुकी है जिसमें 90 प्रतिशत से अधिक 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चे थे। बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में 1978 से 2008 तक जेई और एईएस के 17276 मरीज आए जिसमें 5509 की मौत हो गई। केन्द्र सरकार ने वर्ष 2001 से इंसेफेलाइटिस से होनी वाली मौतांे का रिकार्ड रखना शुरू किया हालांकि देश में इसका पहला केस 1955 में ही पाया गया था और वर्ष 2000 तक हजारों लोग इससे मर चुके थे। केन्द्र सरकार के अनुसार जेई/एईएस बीमारी से वर्ष 2001 से 2007 तक 5312 मौतें हो चुकी हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश में हुई मौतों का आंकड़ा 3470 है। अकेले उत्तर प्रदेश में इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौते देश की 65 फीसदी है। यूपी में भी गोरखपुर और इसके आस-पास के एक दर्जन जिले इससे ज्यादा प्रभावित हैं। ंसरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की सीमित पहुंच को देखते हुए मौत का यह आंकडा कई गुना अधिक होता है। गैरसरकारी दावों के मुताबिक पूर्वी उत्तर प्रदेश में जेई/एईएस से 1978 से अब तक यानि 30 वर्ष में 30 हजार से अधिक मौते हो चुकी हैं।
देश के राज्यों में एईएस और जेई का प्रकोप है। इसमें सर्वाधिक प्रभावित राज्य यूपी, आसाम, बिहार, पश्चिम बंगाल है।
क्या है जापानी इंसेफेलाइटिस और एईएस (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम)
इंसेफेलाइटिस कई प्रकार के होते हैं। इंसेफेलाइटिस जल जनित या वेक्टर जनित हो सकता है। दोनों तरह की बीमारियों को एईएस यानि एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिन्ड्रोम की श्रेणी में रखा जाता है। इंसेफेलाइटिस में जापानी इंसेफेलाइटिस यानि जेई प्रमुख है जो मच्छर जनित जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस के कारण होता है। यह क्यूलेक्स विश्नोई नाम के मच्छर के जरिए फैलता है। सुअर और जंगली पक्षियां इस वायरस के स्रोत होते हैं। एशिया में जेई के हर वर्ष 30 से 50 हजार केस रिपोर्ट होते हैं। इस बीमारी में सीएफआर यानि कि केस फेटिलटी रेट 0.3 से लेकर 60 प्रतिशत हो सकता है और यह आबादी और आयु पर निर्भर करता है। इस बीमारी का प्रकोप ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा है। जापान, चीन, कोरिया, ताईवान और थाईलैण्ड ने टीकाकरण के जरिए इस पर काबू पा लिया है लेकिन वियतनाम, कम्बोडिया, म्यांमार, भारत, नेपाल और मलेशिया में यह चक्रीय वर्षों में महामारी की तरह आता है। इस बीमारी से प्रभावित रोगियों में बुखार, सिरदर्द, दस्त, उल्टी के लक्षण दिखाई देते हैं। इससे प्रभावित मरीज असामान्य व्यवहार करने लगते हैं। इस बीमारी की चपेट में आने के बाद बच जाने वाले 30 फीसदी मरीज मानसिक और शारीरिक विकलांगता के शिकार हो जाते हैं।
भारत में जेई वायरस की सक्रियता सबसे पहले 1952 में महराष्ट्र के नागपुर और तमिलनाडू के चिंगेलपुट जिले में पायी गई थी। वर्ष 1955 में वेल्लोर और पाण्डेचेरी में इसका केस पाया गया। तब तक इस वायरस की पहचान नहीं हो पाई थी। 1958 के बाद इसकी पहचान हुई। 1970 के पहले इसका प्रकोप दक्षिण भारत में ही देखा गया लेकिन वर्ष 1973 में पश्चिम बंगाल में 375 लोगों की मौत के बाद इस बीमारी ने देश के 21 राज्यों को अपने चपेट में ले लिया।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में टीकाकरण के बाद जापानी इंसेफेलाइटिस का प्रकोप थोड़ा कम हुआ है लेकिन जलजनित इंसेफेलाइटिस के मामले बढ़ गए हैं। यह इंसेफेलाइटिस मल प्रदूषित जल के शरीर में पहुंचने के कारण होता है। इसके बचाव के सम्बन्ध में चिकित्सकों का कहना है कि लोग साफ-सफाई से रहें और शौचालय का ही उपयोग करें लेकिन जब देश की 86 फीसदी जनता 20 में एक दिन की जिंदगी गुजारने के लिए विवश हो वहां चिकित्सकों की इस सलाह का कोई मायने नहीं रह जाता है।
रूक गया टीकाकरण
जापानी इंसेफेलाइटिस से बचाव का सबसे कारगर उपाय टीकाकरण है लेकिन केन्द्र और प्रदेश सरकार इसमें भी घोर लापरवाही बरत रही है। वर्ष 1978 से हजारों बच्चों की मौत के बाद भी टीकाकरण के बारे में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। जब वर्ष 2005 में बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में जापानी इंसेफेलाइटिस से 1135 मौतें हो गई और मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में इस बारे में खबरें राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आने लगीं तो सरकार कुछ हरकत में आई। राज्यपाल राजेश्वर राव, राहुल गांधी और फिर स्वास्थ्य मंत्री ए रामदास के दौरे से इस मुद्दे का राजनीतिकरण भी हुआ और केन्द्र की संप्रग सरकार तथा यूपी की मुलायम सरकार में आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गया। तब केन्द्र सरकार ने चीन से टीके मंगाए।
2006 में चार राज्यों के जिलों में 16.83 मिलियन बच्चों को और 2007 में नौ राज्यों के 27 जिलों में 18.20 मिलियन बच्चों को टीका लगाया गया। टीकाकरण के बाद दावा किया गया कि हर जिले में एक वर्ष से 15 वर्ष तक के 90 फीसदी बच्चों को टीका लगा दिया गया लेकिन जल्द ही इन दावों की भी पोल खुल गई। वर्ष 2008 में उत्तर प्रदेश में एईएस के 738 मामले सामने आए जिसमें से 138 बच्चों की मौत हुई जिसमें सिर्फ 48 को जेई का टीका लगा था। इसी तरह वर्ष 2009 में भी जेई के 50 से अधिक मामले सामने आए हैं। फिर भी इस वर्ष बच्चों को टीका लगाने का कार्य नहीं हुआ है। इससे समझा जा सकता है कि सरकार कितनी गंभीर है। दूसरे देशं 17-18 वर्ष तक लगातार टीकाकरण के बाद जापानी इंसेफेलाइटिस पर काबू पा सके लेकिन यहां तीन वर्ष में ही सरकार का दम टूटने लगा है।
रोग का खात्मा तो दूर इलाज की ठीक व्यवस्था तक नहीं गोरखपुर का बीआरडी मेडिकल कालेज इंसेफेलाइटिस के इलाज के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के 12 जिलों का एक मात्र केन्द्र है। यहां पर बिहार और नेपाल के मरीज भी आते हैं लेकिन सरकार ने इंसेफेलाइटिस के इस एक मात्र केन्द्र को भी जरूरी संसाधनों से लैस नहीं कर सकी है। मेडिकल कालेज के बाल रोग विभाग के पास सिर्फ एक वार्ड है वह भी तीसरी मंजिल पर जहां इंसेफेलाइटिस के अलावा अन्य रोगों से ग्रस्त बच्चे भी भर्ती होते हैं। जब रोगियों की संख्या बढ़ जाती है तो इस वार्ड में एक-एक बेड पर दो या तीन बच्चों को रखना पड़ता है। जमीन पर भी लिटा कर बच्चों का इलाज किया जाता है। अगस्त माह में हर दिन इंसेफेलाइटिस के लगभग 100 बच्चे छह नम्बर वार्ड में रहे हैं। अन्य रोगों के मरीज भी 100 के आस-पास होते हैं।
बच्चों का इलाज करने वाले बाल रोग विभाग और मेडिसीन विभाग में पैरा मेडिकल स्टाफ व चिकित्सकों के एक तिहाई पद रिक्त हैं। वेन्टिलेटर खराब पड़े हुए हैं। जिला अस्पताल व दूसरे अस्पतालों से चिकित्सकांे को मेडिकल कालेज भेजकर किसी तरह इलाज की व्यवस्था की जा रही है। यह किसी के समझ से परे है कि सरकार मरीजों के लिए इलाज के लिए एक दो या इससे अधिक सभी संसाधनों से पूर्ण वार्ड का इंतजाम क्यों नहीं कर सकी है। इस बीमारी को जड़ से खत्म करने की बात तो बहुत दूर है। काफी हो हल्ले के बाद यहां वायरोलाली रिसर्च सेन्टर बन तो गया है लेकिन अभी भी यह सुचारू रूप से कार्य करने के लिए पूना स्थित एनवीसी पर निर्भर रहता है। इंसेफेलाइटिस के रोगियों को आक्सीजन के सहारे रखना पड़ता है और उन पर सतत निगरानी की जरूरत रहती है। इसलिए अत्याधुनिक उपकरणों से सुसज्जित वार्ड के साथ-साथ पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित मेडिकल स्टाफ जरूरी है लेकिर यह इंतजाम भी सरकार नहीं कर सकी है।
वर्ष 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंसेफेलाइटिस की रोकथाम के लिए कई निर्देश दिए जिसमें गोरखपुर में वायरल रिसर्च सेन्टर स्थापित करने, इसे नोटिफाएबल डिजीज घोषित करने, जेई के टीकाकरण को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने, गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में वेक्टर बार्न डिजीज सर्विलांस यूनिट की स्थापना करने, मेडिकल कालेज में एपीडेमिक वार्ड बनाने प्रमुख था। न्यायालय के निर्देश पर सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं लेकिन जेई/एईएस को नोटीफाएबल डिजीज नहीं घोषित किया गया जिससे इससे होनी वाली मौतों का वास्तवित आंकड़ा जुटाया जा सके।
विकलांगों की मदद बंद की
इंसेफेलाइटिस की चपेट में आने वाले 20 से 25 प्रतिशत रोगी किसी न किसी तरह की विकलांगता के शिकार हो जाते है। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 1978 से अब तक इंसेफेलाइटिस की चपेट में आने से पांच हजार लोग विकलांग हो चुके हैं। यह विकलांगता-मन्द बुद्धि, व्यावहारिक विकार, लकवा, अकड़पन, मूक-बधिर, झटके, मल-मू़त्र पर नियंत्रण में की, अनियंत्रित हरकतें, केन्द्रिय तंत्रिका तंत्र को क्षति और अनिद्रा के रूप में सामने आती है। इंसेफेलाइटिस का शिकार होकर विकलांग हुए इन बच्चों के लिए इलाज या देखरेख की कोई व्यवस्था नहीं हुई है। जनदबाव में मुलायम सरकार ने विकलांगों को 50 हजार रू देने की व्यवस्था की थी लेकिन बसपा की सरकार आते ही इसे भी बंद कर दिया गया।
मरने वाले गरीब हैं इसलिए चुप्पी है
इंसेफेलाइटिस से मरने वाले बच्चे और लोग चूंकि गरीब परिवार के हैं इसलिए इस मामले में चारों तरफ चुप्पी दिखाई देती है। डेंगू या स्वाइन फलू से दिल्ली और पूना में कुछ लोगों की मौत पर जिस तरह हंगामा मचता है उस तरह की हलचल इंसेफेलाइटिस से हजारों बच्चांे की मौत पर कभी नहीं हुई। एक स्वंयसेवी संगठन एक्शन फार पीस, प्रास्परेटि एण्ड लिबर्टी द्वारा गोरखपुर मण्डल में इंसेफेलाटिस से विकलांग हुए बच्चों के बारे में कराए गए अध्ययन में पाया गया कि जो बच्चे इस बीमारी से प्रभावित हुए उनमें से 74 फीसदी की आमदनी दो हजार रूपए महीने से कम थी और 83 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र के थे। ये बच्चे मजदूर और छोटे किसानों के परिवार के थे। गरीबी के कारण ये लोग इस बीमारी से बचाव के उपाय नहीं कर पाते हैं और इसके सबसे आसान शिकार बन जाते हैं। गरीबी के कारण ये इंसेफेलाइटिस के आसान शिकार होने के साथ-साथ हमारी राजनीति के लिए भी उपेक्षा के शिकार है। इंसेफेलाइटिस के उन्मूलन के लिए जनजागरण करने वाले चिकित्सक डा आरएन सिंह ने अपनी ओर से इस बीमारी के खात्मे के लिए समग्र कार्ययोजना तैयार करने की मांग करते हुए एक प्रस्तावित माडल नीप ( नेशनल इंसेफेलाइटिस इरेडिक्शन प्रोगाम) प्रस्तुत किया लेकिन सरकार ने साफ तौर पर कह दिया कि इस तरह के प्रोग्राम की कोई जरूरत नहीं है।
असल सवाल
हर बात में दुनिया की महशक्ति बनने का दावा करने वाला देश इंसेफंलाइटिस से हजारों बच्चों की जान को क्यों नहीं बचा पा रहा है ? इस सवाल के जवाब में अक्सर कुछ उपायों को करने की बात होती है जो मूल सवाल को पीेछे कर देता है। मूल सवाल देश के स्वास्थ्य ढांचे का और सरकार की जन स्वास्थ्य की प्राथमिका का है। अपना देश इस समय जीडीपी का एक प्रतिशत से भी कम धन स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है। ऐसे हालत में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति होगी इसे समझा जा सकता है। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने के कारण स्थिति और भी खराब हुई है। सही मायनों में गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। गरीब व्यक्ति बीमारी के इलाज में अपनी गाढ़ी कमाई खर्च कर देता है और फिर कर्ज में डूब जाता है। फिर वह कर्ज के मकड़जाल से कभी बाहर नहीं आ पाता। जब सरकारें अपनी कुल बजट का आधा भ्रष्टाचार में निगल जाती हों, 2640 करोड़ रूपया मूर्तियों और पार्को को बनाने में खर्च कर देती हो, जहां एक परिवार की सुरक्षा के लिए प्रतिदिन नौ करोड़ रूपया खर्च होता हो वहां गरीबों की जान बचाने के लिए सिर्फ बयान दिए जा सकते हैं और दिखावे किए जा सकते हैं।



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जसिया की आखें

वह असामान्य रूप से बड़ी-बड़ी आंखे फिर मेरे सामने थी। उन आंखों का सामना कर पाना बहुत मुश्किल है। यह आंखे मेरी बार-बार पीछा करती हैं। आज यह आंखे आज अखबार के उस पन्ने से झांक रही है जिसमें भुखमरी से एक मुसहर की मौत की खबर छपी हैै। भुखमरी, गरीबी, लाचारी से हर मौत पर यही आंखे सामने आती हैं। तीन वर्ष पहले एक वरिष्ठ पत्रकार ने कुशीनगर जिले में भूख से मौतों के बारे में रिपोर्ट लिखने के लिए कुछ मुसहर गांवों में जाने की इच्छा जाहिर की थी और वह चाहते थे कि मै भी उनके साथ चलूं। वर्ष 2004 में भुखमरी से नगीना मुसहर की मौत के बाद मै लगातार कुशीनगर जिले के मुसहर गांवों का दौरा कर रहा था और उनके बारे में लिख रहा था। मुसहरों की गरीबी, बेबसी और उनकी बस्तियों में मौत के तांडव की कहानियां मीडिया की सुर्खी बनी हुई थी। हम लोग उन मुसहर गांवों में गए जहां हाल मंे भूख से मौत हुई थी। उनके परिजनों और गांव वालों से बातचीत की। बातचीत से एक बात साफ उभर कर सामने आ रही थी कि मुसहरों के पास खेती की जमीन नहीं है, वे कर्ज में डूबे हैं, खेती में मशीनों के बढ़ते प्रयोग के कारण उन्हें अब कम काम मिलता है और खेत में मजदूरी करने पर महिलाओं को 20 रूपए और पुरूषों को 40 रूपए से अधिक नहीं मिलता। मुसहर नौजवान गांव छोड़ कर भाग रहे हैं। 40-45 वर्ष के लोग भी बूढ़े दिखते हैं। हर घर में कोई न कोई बीमार है। तपेदिक का भयानक प्रकोप है। कुपोषित बच्चों को देखने पर दिमाग में सोमालिया के बारे में पढी-देखी खबरें और तस्वीरें घूमने लगती है। बच्चे सुबह से उठ कर तालाबों के किनारें घोंघे ढूंढते है या गना, गेंठी चूुस कर अपनी भूख मिटाते हैं। धान की कटाई हुए खेतों में महिलाएं व पुरूष चूहे के बिल ढूंढते हैं और फिर उसे खोद कर चूहे द्वारा छिपाए गए धान को बाहर निकाल लेते हैें। यह अनाज उनके जीवन के लिए कुछ दिन का सहारा बनता है। मुसहर बस्तियां गांव के दक्खिन की तरफ हैं और जब चलते-चलते आापके पांव से खडंजा या कच्ची सड़क गायब हो जाए तो समझिए कि कोई मुसहर बस्ती आपके सामने आने वाली है। ऐसे ही एक गांव में जब हम पहुंचे तो लोगों ने बताया कि जसिया के घर उसके बेटे की मौत हुई है। हम उसकी घर की तरफ गए तो जसिया और उसकी बेटी घर के बाहर बैठी मिलीं। बेटे की मौत को चार-पांच दिए हुए थे। बातचीत के क्रम में मैने पूछा कि घर में इसके पहले कोई और मौत हुई है। कुछ देर की चुप्पी के बाद उसके मुंह से निकला .....मरद की। ........कोई और मौत ...............जसिया नहीं बोल रही है। उसकी बड़ी-बड़ी आंखे हमकों घेर लेती है। गांव के एक लड़का बोल पड़ता है इनके एक और बेटे की मौत हो चुकी है। जसिया के मुंह से बोल फूटते हैं हां एक साल पहले। एक साल में देा बेटे और पति की मौत। बेटी जिंदा है लेकिन ससुराल वालों ने उसे खदेड़ दिया है। कहते हैं कि उसके घर में इतनी मौत क्यों हो रही है ? जरूर कोई जादू-टोना या भूत-प्रेत की बात है। वह रहेगी तो उनका साया यहां भी पड़ेगा। पैसा नहीें था इसलिए बेटे और मर्द का क्रिया-करम भी नहीं हो सका था। दूसरे बेटे का क्रिया-करम हो जाएगा क्योंकि अब इन बस्तियों में नेता आने लगे हैं। बाबा कल आए थे और कुछ रूपए देते हुए कार्यकर्ताओं को निर्देश दे गए हैं कि ठीक से क्रिया-करम हो जाए। ठीक से क्रिया-करम नहीं होना धर्म के लिए जरूरी है।